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थीं ज़मीनें गुम-शुदा और आसमाँ मिलता न था | शाही शायरी
thin zaminen gum-shuda aur aasman milta na tha

ग़ज़ल

थीं ज़मीनें गुम-शुदा और आसमाँ मिलता न था

अशरफ़ शाद

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थीं ज़मीनें गुम-शुदा और आसमाँ मिलता न था
सर पे सूरज था मिरे पर साएबाँ मिलता न था

बे-नतीजा ही रही है हर सफ़र की जुस्तुजू
ढूँडने निकले थे जिस को वो जहाँ मिलता न था

मंज़िलें आसान थीं और रास्ते मख़दूश थे
कश्तियाँ मौजूद थीं पर बादबाँ मिलता न था

घोंसले ख़ाली पड़े हैं और वहीं पर आस पास
कुछ परिंदे थे कि जिन को आशियाँ मिलता न था

गर्दिश-ए-दौराँ मुझे फिर अब वहीं ले आई है
शहर जो मेरा था लेकिन हम-ज़बाँ मिलता न था