थी याद किस दयार की जो आ के यूँ रुला गई 
बस एक पल में जैसे ज़िंदगी भी डगमगा गई 
गुमाँ था ये कि दब गईं वो हसरतों की बिजलियाँ 
ये कौन सी नई चमक बुझे दिए जला गई 
गिराईं शाख़ शाख़ से ख़िज़ाँ ने फूल पत्तियाँ 
उड़े जो बीज हर तरफ़ तो फिर बहार आ गई 
खुला निगाह-ए-यार का जो मय-कदा तो यूँ लगा 
कि प्यास एक उमर की बस इक नज़र बुझा गई 
ख़ुदा-क़सम मैं बच गया ख़ता की तेज़ धार से 
जुनूँ की इक अदा थी जो मुझे यूँ आज़मा गई 
ये क्या हुआ कि अब तुझी से बद-गुमाँ मैं हो गया 
मैं सोचता था ज़िंदगी तू मुझ को रास आ गई 
मिली है 'आज़िम'-ए-सुख़न ये कैसी तीरगी तुझे 
तिरे ख़याल में जो इतनी रौशनी बढ़ा गई
        ग़ज़ल
थी याद किस दयार की जो आ के यूँ रुला गई
आज़िम कोहली

