EN اردو
थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते | शाही शायरी
thakna bhi lazmi tha kuchh kaam karte karte

ग़ज़ल

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते

ज़फ़र इक़बाल

;

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते

अंदर सब आ गया है बाहर का भी अंधेरा
ख़ुद रात हो गया हूँ मैं शाम करते करते

ये उम्र थी ही ऐसी जैसी गुज़ार दी है
बदनाम होते होते बदनाम करते करते

फँसता नहीं परिंदा है भी इसी फ़ज़ा में
तंग आ गया हूँ दिल को यूँ दाम करते करते

कुछ बे-ख़बर नहीं थे जो जानते हैं मुझ को
मैं कूच कर रहा था बिसराम करते करते

सर से गुज़र गया है पानी तो ज़ोर करता
सब रोक रुकते रुकते सब थाम करते करते

किस के तवाफ़ में थे और ये दिन आ गए हैं
क्या ख़ाक थी कि जिस को एहराम करते करते

जिस मोड़ से चले थे पहुँचे हैं फिर वहीं पर
इक राएगाँ सफ़र को अंजाम करते करते

आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
उस्लूब-ए-ख़ास अपना मैं आम करते करते