थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था
मैं जब गिरा तो मिरे सामने मिरा घर था
तही-समर शजर-ए-ख़्वाब कुछ निढाल से थे
ज़मीं पे सूखी हुई पत्तियों का बिस्तर था
उसी की आब थी उस शब में रौशनी की लकीर
वो एक शख़्स कि जो काँच से भी कम-तर था
नहीं कि गर्द हैं सात आसमाँ ही गर्दिश में
ज़मीं की तरह मिरे पाँव में भी चक्कर था
मैं आज भी उसी बस्ती में जी रहा हूँ जहाँ
किसी के हाथ में ख़ंजर किसी के पत्थर था
बढ़ा के हाथ ख़िज़ाँ की रुतों ने नोच लिया
हवा के जिस्म पे जो ख़ुशबुओं का ज़ेवर था
सरों पे अब्र-कुशा धूप की तमाज़त थी
'नजीब' ज़ेर-ए-क़दम रेत का समुंदर था
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ग़ज़ल
थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था
नजीब अहमद