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थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था | शाही शायरी
thakan se chur badan dhul mein aTa sar tha

ग़ज़ल

थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था

नजीब अहमद

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थकन से चूर बदन धूल में अटा सर था
मैं जब गिरा तो मिरे सामने मिरा घर था

तही-समर शजर-ए-ख़्वाब कुछ निढाल से थे
ज़मीं पे सूखी हुई पत्तियों का बिस्तर था

उसी की आब थी उस शब में रौशनी की लकीर
वो एक शख़्स कि जो काँच से भी कम-तर था

नहीं कि गर्द हैं सात आसमाँ ही गर्दिश में
ज़मीं की तरह मिरे पाँव में भी चक्कर था

मैं आज भी उसी बस्ती में जी रहा हूँ जहाँ
किसी के हाथ में ख़ंजर किसी के पत्थर था

बढ़ा के हाथ ख़िज़ाँ की रुतों ने नोच लिया
हवा के जिस्म पे जो ख़ुशबुओं का ज़ेवर था

सरों पे अब्र-कुशा धूप की तमाज़त थी
'नजीब' ज़ेर-ए-क़दम रेत का समुंदर था