ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
ये सख़्त-राह भी अब इख़्तियार करता चल
सफ़र की रात है हर गाम एहतियात बरत
पलट पलट के अंधेरों पे वार करता चल
लिए जा काम तू अपनी फ़िराख़-दस्ती से
क़दम क़दम पे मुझे ज़ेर-ए-बार करता चल
इधर उधर जो खड़े हो गए हैं तेरे लिए
उन्हें भी अपने सफ़र में शुमार करता चल
किसी ठिकाने पे तुझ को अगर पहुँचना है
तो नक़्श-ए-पा का मिरे ए'तिबार करता चल
न खींच दश्त ओ जबल बहर ओ बर से क़दमों को
ये सब रुकावटें हैं इन को पार करता चल
ग़ज़ल
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही