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ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल | शाही शायरी
Thahar Thahar ke mera intizar karta chal

ग़ज़ल

ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

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ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
ये सख़्त-राह भी अब इख़्तियार करता चल

सफ़र की रात है हर गाम एहतियात बरत
पलट पलट के अंधेरों पे वार करता चल

लिए जा काम तू अपनी फ़िराख़-दस्ती से
क़दम क़दम पे मुझे ज़ेर-ए-बार करता चल

इधर उधर जो खड़े हो गए हैं तेरे लिए
उन्हें भी अपने सफ़र में शुमार करता चल

किसी ठिकाने पे तुझ को अगर पहुँचना है
तो नक़्श-ए-पा का मिरे ए'तिबार करता चल

न खींच दश्त ओ जबल बहर ओ बर से क़दमों को
ये सब रुकावटें हैं इन को पार करता चल