था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी
मैं अगर ये जानता शायद तो रोता और भी
पाँव की ज़ंजीर गिर्दाब-ए-बला होती अगर
डूबते तो सत्ह पर इक नक़्श बनता और भी
आँधियों ने कर दिए सारे शजर बे-बर्ग-ओ-बार
वर्ना जब पत्ते खड़कते दिल लरज़ता और भी
रौज़न-ए-दर से हवा की सिसकियाँ सुनते रहो
ये न देखो है कोई याँ आबला-पा और भी
हर तरफ़ आवाज़ के टूटे हुए गिर्दाब हैं
रौशनी कम है मगर चलता है दरिया और भी
सिर्फ़ तू होता तो तेरा वस्ल कुछ मुश्किल न था
क्या करें तेरे सिवा कुछ हम ने चाहा और भी
आरज़ू शब की मसाफ़त है तो तन्हा काटिए
दिन के महशर में तो हो जाएँगे तन्हा और भी

ग़ज़ल
था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी
तौसीफ़ तबस्सुम