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था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी | शाही शायरी
tha pas-e-mizhgan-tar ek hashr barpa aur bhi

ग़ज़ल

था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी

तौसीफ़ तबस्सुम

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था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी
मैं अगर ये जानता शायद तो रोता और भी

पाँव की ज़ंजीर गिर्दाब-ए-बला होती अगर
डूबते तो सत्ह पर इक नक़्श बनता और भी

आँधियों ने कर दिए सारे शजर बे-बर्ग-ओ-बार
वर्ना जब पत्ते खड़कते दिल लरज़ता और भी

रौज़न-ए-दर से हवा की सिसकियाँ सुनते रहो
ये न देखो है कोई याँ आबला-पा और भी

हर तरफ़ आवाज़ के टूटे हुए गिर्दाब हैं
रौशनी कम है मगर चलता है दरिया और भी

सिर्फ़ तू होता तो तेरा वस्ल कुछ मुश्किल न था
क्या करें तेरे सिवा कुछ हम ने चाहा और भी

आरज़ू शब की मसाफ़त है तो तन्हा काटिए
दिन के महशर में तो हो जाएँगे तन्हा और भी