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था पा-शिकस्ता आँख मगर देखती तो थी | शाही शायरी
tha pa-shikasta aankh magar dekhti to thi

ग़ज़ल

था पा-शिकस्ता आँख मगर देखती तो थी

फ़रहत क़ादरी

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था पा-शिकस्ता आँख मगर देखती तो थी
माना वो बे-अमल था मगर आगही तो थी

इल्ज़ाम-ए-नारसी से मुबर्रा नहीं थी सीप
लेकिन किसी के शौक़ में डूबी हुई तो थी

माना वो दश्त-ए-शौक़ में प्यासा ही मर गया
इक झील जुस्तुजू की पस-ए-तिश्नगी तो थी

एहसास पर मुहीत थे लफ़्ज़ों के दाएरे
लफ़्ज़ों के दाएरों में मगर ज़िंदगी तो थी

वीराँ था सेहन-ए-बाग़ मगर इस क़दर न था
कोने में सूखे पत्तों की महफ़िल जमी तो थी

ग़म दूर कर के और भी मफ़्लूज कर दिया
तन्हाइयों की रात में दिल-बस्तगी तो थी

इस ठंडी रात में तो अँधेरे का राज है
सूरज जला रहा था मगर रौशनी तो थी