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था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था | शाही शायरी
tha mustaar husn se uske jo nur tha

ग़ज़ल

था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था

मीर तक़ी मीर

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था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था

हंगामा गर्म-कुन जो दिल-ए-ना-सुबूर था
पैदा हर एक नाले से शोर-ए-नुशूर था

पहुँचा जो आप को तो मैं पहुँचा ख़ुदा के तईं
मालूम अब हुआ कि बहुत मैं भी दूर था

आतिश बुलंद दिल की न थी वर्ना ऐ कलीम
यक शो'ला बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-सद-कोह-ए-तूर था

मज्लिस में रात एक तिरे परतवे बग़ैर
क्या शम्अ क्या पतंग हर इक बे-हुज़ूर था

उस फ़स्ल में कि गुल का गरेबाँ भी है हवा
दीवाना हो गया सो बहुत ज़ी-शुऊर था

मुनइ'म के पास क़ाक़ुम ओ संजाब था तो क्या
उस रिंद की भी रात गुज़र गई जो ऊर था

हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था

कल पाँव एक कासा-ए-सर पर जो आ गया
यकसर वो उस्तुख़्वान शिकस्तों से चूर था

कहने लगा कि देख के चल राह बे-ख़बर
मैं भी कभू किसू का सर-ए-पुर-ग़ुरूर था

था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीं में 'मीर'
समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़ुसूर था