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था बंद वो दर फिर भी मैं सौ बार गया था | शाही शायरी
tha band wo dar phir bhi main sau bar gaya tha

ग़ज़ल

था बंद वो दर फिर भी मैं सौ बार गया था

शौक़ क़िदवाई

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था बंद वो दर फिर भी मैं सौ बार गया था
मानिंद हवा फाँद के दीवार गया था

फिरता हूँ मैं बे-दिल मिरा दिल क्यूँ नहीं देते
क्या तुम से जुआ खेल के मैं हार गया था

सौदे को न पूछ आया था तू नाज़ से जिस दिन
गेसू तिरा उस दिन मिरे सर मार गया था

दिल से न सही आए तो मय्यत पे वो आख़िर
आते न तो मरना मिरा बेकार गया था

ख़ुद मैं ने जताया है उसे हश्र का मैदाँ
मशहद ही से मैं उस का तरफ़-दार गया था

बरछा था कि तीर अपनी नज़र से ये ज़रा पूछ
सीने में कुछ इस पार से उस पार गया था

मजबूर हुआ वो जो पड़ा ज़ुल्फ़ का फंदा
'शौक़' उस के वहाँ हो के गिरफ़्तार गया था