था बाम-ए-फ़लक ख़ाक-बसर आने लगा हूँ
जिस सम्त इशारा था उधर आने लगा हूँ
जब तक तिरी आँखों में नहीं था तो नहीं था
अब देखने वालों को नज़र आने लगा हूँ
मत काटना रस्ता मिरा बन कर ख़त-ए-इम्काँ
ऐ दर-ब-दरी लौट के घर आने लगा हूँ
इक वहम सही फिर भी मिरी नफ़्य है दुश्वार
ऐ दोस्त हर आहट पर अगर आने लगा हूँ
अल्लाह-रे क़िस्मत कि शहाब उन की गली में
साए की तरह शाम-ओ-सहर आने लगा हूँ

ग़ज़ल
था बाम-ए-फ़लक ख़ाक-बसर आने लगा हूँ
शहाब सफ़दर