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तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ भी नाकाम ही न हो | शाही शायरी
teri nigah-e-lutf bhi nakaam hi na ho

ग़ज़ल

तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ भी नाकाम ही न हो

ख़ुर्शीद रिज़वी

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तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ भी नाकाम ही न हो
दिल तो वो ज़ख़्म है जिसे आराम ही न हो

चौंका हूँ नीम-शब भी यही सोच सोच कर
वो आफ़्ताब अब भी लब-ए-बाम ही न हो

तुम जिस को जानते हो फ़क़त अपनी तब-ए-ख़ास
वो रंज वो फ़सुर्दा-दिली आम ही न हो

आहिस्ता इस लरज़ते हुए पुल पे रख क़दम
सदियों का इंहिदाम तिरे नाम ही न हो

ऐ दिल मफ़र तो कार-ए-जहाँ से नहीं मगर
इतना तो कर कि इस में सुबुक-गाम ही न हो

दस्तक सी दे रही है दरीचे पे बाद-ए-सुब्ह
ऐ महव-ए-ख़्वाब सुन कोई पैग़ाम ही न हो

'ख़ुर्शीद' तू ने कैसे निभाईं ये उज़लतें
जैसे तुझे किसी से कोई काम ही न हो