तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ भी नाकाम ही न हो
दिल तो वो ज़ख़्म है जिसे आराम ही न हो
चौंका हूँ नीम-शब भी यही सोच सोच कर
वो आफ़्ताब अब भी लब-ए-बाम ही न हो
तुम जिस को जानते हो फ़क़त अपनी तब-ए-ख़ास
वो रंज वो फ़सुर्दा-दिली आम ही न हो
आहिस्ता इस लरज़ते हुए पुल पे रख क़दम
सदियों का इंहिदाम तिरे नाम ही न हो
ऐ दिल मफ़र तो कार-ए-जहाँ से नहीं मगर
इतना तो कर कि इस में सुबुक-गाम ही न हो
दस्तक सी दे रही है दरीचे पे बाद-ए-सुब्ह
ऐ महव-ए-ख़्वाब सुन कोई पैग़ाम ही न हो
'ख़ुर्शीद' तू ने कैसे निभाईं ये उज़लतें
जैसे तुझे किसी से कोई काम ही न हो
ग़ज़ल
तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ भी नाकाम ही न हो
ख़ुर्शीद रिज़वी

