तेरी गली में मैं न चलूँ और सबा चले 
यूँ ही ख़ुदा जो चाहे तो बंदे की क्या चले 
किस की ये मौज-ए-हुस्न हुई जल्वागर कि यूँ 
दरिया में जो हबाब थे आँखें छुपा चले 
हम भी जरस की तरह तो इस क़ाफ़िले के साथ 
नाले जो कुछ बिसात में थे सो सुना चले 
कह बैठियो न 'दर्द' कि अहल-ए-वफ़ा हूँ मैं 
उस बेवफ़ा के आगे जो ज़िक्र-ए-वफ़ा चले
        ग़ज़ल
तेरी गली में मैं न चलूँ और सबा चले
ख़्वाजा मीर 'दर्द'

