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तेरे शैदा भी हुए इश्क़-ए-तमाशा भी हुए | शाही शायरी
tere shaida bhi hue ishq-e-tamasha bhi hue

ग़ज़ल

तेरे शैदा भी हुए इश्क़-ए-तमाशा भी हुए

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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तेरे शैदा भी हुए इश्क़-ए-तमाशा भी हुए
तेरे दीवाने तिरे शहर में रुस्वा भी हुए

ज़ुल्फ़ तो ज़ुल्फ़ है दुनिया से भी उलझे हैं कि हम
इक बगूला भी बने हामिल-ए-सहरा भी हुए

तुम तो सुन पाए न आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल भी
कुछ हमीं थे कि हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी हुए

हम फ़क़ीरान-ए-मुहब्बत के अजब तेवर हैं
रज़्म-ए-का'बा भी बने बज़्म-ए-कलीसा भी हुए

मिट के हम ख़ाक हुए ख़ाक-ए-रह-ए-कू-ए-बुताँ
बन के हम हासिल-ए-सद-बज़्म-ए-तजल्ली भी हुए

पेश-ए-ख़ुरशीद-ए-रुख़ाँ ज़र्रा-ए-नाचीज़ रहे
और हम रू-कश-ए-हुस्न-ए-रुख़-ए-ज़ेबा भी हुए

ज़ीनत-ए-महफ़िल-ए-सद-ज़ोहरा-जबीनाँ हुए हम
हाँ मगर ये कि भरी बज़्म में तन्हा भी हुए

यूँ तो 'बाक़र' भी रहे ख़ाक-नशीनों में तिरे
ये अलग बात तिरे लुत्फ़ से यकता भी हुए