EN اردو
तेरे रहने को मुनासिब था कि छप्पर होता | शाही शायरी
tere rahne ko munasib tha ki chhappar hota

ग़ज़ल

तेरे रहने को मुनासिब था कि छप्पर होता

ज़रीफ़ लखनवी

;

तेरे रहने को मुनासिब था कि छप्पर होता
कि न चौखट तिरी होती न मिरा सर होता

क़िस्मत-ए-नज्द का गर क़ैस कमिश्नर होता
लेडी-लैला की हवा-ख़ोरी को मोटर होता

ग़ैर मिल-जुल के उठा लेते कि थे बे-ग़ैरत
गो पहाड़ आप के एहसान का छप्पर होता

चाय में डाल कर उश्शाक़ उसे पी जाते
दर-हक़ीक़त लब-ए-माशूक़ जो शक्कर होता

मलक-उल-मौत पे झलने को बनाता मैं चँवर
ताएर-ए-रूह की दम में जो कोई पर होता

ले ही लेता लब-ए-दिलदार का बोसा उड़ कर
काश आशिक़ जो बनाया था तो मच्छर होता

ठोकरें ग़ैर के मरक़द पे लगाता क्यूँ कर
बूट की जा पे जो तू पहने स्लीपर होता

चाटता सारी किताबों को बग़ैर अज़-दिक़्क़त
इल्म का शौक़ जिसे है जो वो झींगर होता

पास करता रिज़ोलियूशन कि हसीनों पे हो टेक्स
मैं कभी म्यूंसिपल्टी का जो मेम्बर होता

लखनऊ से शब-ए-यक-शम्बा बरेली आते
पाँव में गर न ज़रीफ़' अपने सनीचर होता