तेरे दीवाने ने दीवार में दर खोला है
सर-ए-अफ़्लाक नया बाब-ए-क़मर खोला है
ढल गया दिन भी वहीं रात ने डेरा डाला
थक के रहरव ने जहाँ रख़्त-ए-सफ़र खोला है
मेरे चुप रहने पे भी बात वहाँ तक पहुँची
राज़-ए-दिल तू ने मगर दीदा-ए-तर खोला है
हम कभी तह से समुंदर के हैं मोती लाए
कभी परचम सर-ए-मह सीना-सिपर खोला है
दर-ए-शबनम मह-ओ-अंजुम हैं कभी जल्वा-फ़रोश
किस ने गंजीना ये हर शाम-ओ-सहर खोला है
कोहकन बन के कभी हम ने ब-रंग-ए-मजनूँ
इश्क़ का बाब ब-अंदाज़-ए-दिगर खोला है
हसद-ओ-हिर्स-ओ-हवस ऐसे कई चोर मिले
मैं ने चुप-चाप कभी अपना जो घर खोला है
सैकड़ों ख़्वाहिशों की नागिनें डसने को बढ़ीं
हम ने जब भी दर-ए-गंजीना-ए-ज़र खोला है
जिस को देखो वही वारफ़्ता-ए-मंज़िल है यहाँ
वाह क्या मकतबा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र खोला है
किस को फ़ुर्सत जो सुने तेरी कहानी 'माहिर'
दफ़्तर इक शिकवों का ये तू ने मगर खोला है

ग़ज़ल
तेरे दीवाने ने दीवार में दर खोला है
माहिर बलगिरामी