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तेरे अबरू की अजब बैत है हाली ऐ शोख़ | शाही शायरी
tere abru ki ajab bait hai haali ai shoKH

ग़ज़ल

तेरे अबरू की अजब बैत है हाली ऐ शोख़

सिराज औरंगाबादी

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तेरे अबरू की अजब बैत है हाली ऐ शोख़
जिस में है मतलब-ए-दीवान हिलाली ऐ शोख़

गौहर-ए-अश्क कूँ है हल्क़ा-ब-गोशी का ख़याल
गर लगे हात तिरे कान की बाली ऐ शोख़

रूह-ए-फ़रहाद भी ख़ुश हो के मिठाई बाँटे
गर सुने तुझ लब-ए-शीरीं सती गाली ऐ शोख़

जब सें देखी है ख़त-ए-सब्ज़ में तेरे लब-ए-सुर्ख़
तब सें सब्ज़े में छुपी पान की लाली ऐ शोख़

शहर में उल्फ़त-ए-सहरा है मुझे दामन-गीर
क्या क़यामत हैं तिरी चश्म-ए-ग़ज़ाली ऐ शोख़

मसनद-ए-मतलब-ए-दिल पर मिरे कर मोहर-ए-क़ुबूल
मंसब-ए-लुत्फ़ का मंगता हूँ बहाली ऐ शोख़

बस कि तस्वीर तिरी नक़्श किया दिल में 'सिराज'
पर्दा-ए-चश्म है फ़ानूस-ए-ख़याली ऐ शोख़