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तेरा रुख़-ए-मुख़त्तत क़ुरआन है हमारा | शाही शायरी
tera ruKH-e-muKHattat quran hai hamara

ग़ज़ल

तेरा रुख़-ए-मुख़त्तत क़ुरआन है हमारा

मीर तक़ी मीर

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तेरा रुख़-ए-मुख़त्तत क़ुरआन है हमारा
बोसा भी लें तो क्या है ईमान है हमारा

गर है ये बे-क़रारी तो रह चुका बग़ल में
दो रोज़ दिल हमारा मेहमान है हमारा

हैं इस ख़राब दिल से मशहूर शहर-ए-ख़ूबाँ
इस सारी बस्ती में घर वीरान है हमारा

मुश्किल बहुत है हम सा फिर कोई हाथ आना
यूँ मारना तो प्यारे आसान है हमारा

इदरीस ओ ख़िज़्र ओ ईसा क़ातिल से हम छुड़ाए
उन ख़ूँ-गिरफ़्तगाँ पर एहसान है हमारा

हम वे हैं सुन रखो तुम मर जाएँ रुक के यकजा
क्या कूचा कूचा फिरना उनवान है हमारा

हैं सैद-गह के मेरी सय्याद क्या न धड़के
कहते हैं सैद जो है बे-जान है हमारा

करते हैं बातें किस किस हंगामे की ये ज़ाहिद
दीवान-ए-हश्र गोया दीवान है हमारा

ख़ुर्शीद-रू का परतव आँखों में रोज़ हैगा
यानी कि शर्क़-रूया दालान है हमारा

माहिय्यत-ए-दो-आलम खाती फिरे है ग़ोते
यक क़तरा ख़ून ये दिल तूफ़ान है हमारा

नाले में अपने हर शब आते हैं हम भी पिन्हाँ
ग़ाफ़िल तिरी गली में मिंदान है हमारा

क्या ख़ानदाँ का अपने तुझ से कहें तक़द्दुस
रूहुल-क़ुदूस इक अदना दरबान है हमारा

करता है काम वो दिल जो अक़्ल में न आवे
घर का मुशीर कितना नादान है हमारा

जी जा न आह ज़ालिम तेरा ही तो है सब कुछ
किस मुँह से फिर कहें जी क़ुर्बान है हमारा

बंजर ज़मीन दिल की है 'मीर' मिल्क अपनी
पुर-दाग़ सीना मोहर-ए-फ़रमान है हमारा