तेग़-ए-उर्यां पे तुम्हारी जो पड़ी मेरी आँख
चश्म-ए-जौहर से अजी ख़ूब लड़ी मेरी आँख
न हटी पेट पर उस के जो पड़ी मेरी आँख
बन गई नाफ़-ए-शिकम ऐसे अड़ी मेरी आँख
अश्क-ए-गुल रंग पिरोती है मिज़ा में क्या ख़ूब
क्या बनाती है ये फूलों की छड़ी मेरी आँख
तुम रहे बाम पे याँ लग गईं आँखें छत से
रात गिनती रही हर एक कड़ी मेरी आँख
इस ख़जालत ने अबद तक मुझे सोने न दिया
हिज्र में लग गई थी एक घड़ी मेरी आँख
दुर-ए-दंदाँ की भला आइना क्या जाने क़द्र
इस को दिखलाओ मुबस्सिर है बड़ी मेरी आँख
ख़त-ए-रुख़्सार नहीं पा-ए-निगह के हैं निशाँ
आरिज़-ए-साफ़ पे सौ बार पड़ी मेरी आँख
याद आए जो तिरे तेग़ का माला क़ातिल
रोके पैदा करे मोती की लड़ी मेरी आँख
रख़्ना दीवार में मे'मार बनाना क्या था
तू ने रौज़न के एवज़ क्यूँ न जड़ी मेरी आँख
ज़िंदगी में तो किया मर्दुम-ए-आबी मुझ को
देखूँ अब क्या हो मिरे साथ गड़ी मेरी आँख
ज़ुल्फ़ की तरह से ज़ंजीर हुई जाती है नर्म
पड़ती है जोश-ए-जुनूँ में ये कड़ी मेरी आँख
क्या उसी ने ये किया मतला-ए-अबरू मौज़ूँ
तुम जो कहते हो सुख़न-गोई बड़ी मेरी आँख
चश्म में सुरमे का दुम्बाला बना कर बोले
क्यूँ असा टेक के हो जाए खड़ी मेरी आँख
नख़्ल-ए-नर्गिस नहीं तुर्बत पे नज़ारे के लिए
आइने देखती है राह खड़ी मेरी आँख
नज़र आएगी ज़मीं कश्ती-ए-दरिया-ए-फ़ना
देख लेना जो मिरे साथ गड़ी मेरी आँख
बाग़बाँ नहर नहीं याद में इक कूचे की
रो रही है ये गुलिस्ताँ में पड़ी मेरी आँख
करते ही एक निगह में लब-ए-नाज़ुक को कबूद
क्या बना देती है मिस्सी की धड़ी मेरी आँख
आए तेरा जो तसव्वुर भी तो बहर-ए-ताज़ीम
क्या अजब पा-ए-निगह से हो खड़ी मेरी आँख
दिल पर-ए-दाग़ हुआ दफ़्न तो लाला निकला
उगी नर्गिस जो गुलिस्ताँ में गड़ी मेरी आँख
याद आते हैं मुझे हज़रत-ए-'नासिख़' जो 'वज़ीर'
क्या लगा देती है अश्कों की झड़ी मेरी आँख
ग़ज़ल
तेग़-ए-उर्यां पे तुम्हारी जो पड़ी मेरी आँख
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

