तशरीफ़ शब-ए-वा'दा जो वो लाए हुए हैं
सर ख़म है नज़र नीची है शरमाए हुए हैं
रुख़ पर जो सियह-ज़ुल्फ़ को को बिखराए हुए हैं
वो चौदहवीं के चाँद हैं गहनाए हुए हैं
फूलों से सिवा है बदन-ए-पाक में ख़ुशबू
कब इत्र लगाने से वो इतराए हुए हैं
हम्माम में जाने के लिए क्या कहिए कोई
वो तो अरक़-ए-शर्म में नहलाए हुए हैं
ग़ज़ल
तशरीफ़ शब-ए-वा'दा जो वो लाए हुए हैं
नादिर लखनवी