EN اردو
तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल | शाही शायरी
tarsa na mujhko khinch ke talwar mar Dal

ग़ज़ल

तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
गर मार डालना है तो यक-बार मार डाल

आशिक़ जो तेरी ज़ुल्फ़ का हो उस को तू सनम
ले जा के तीरा-शब पस-ए-दीवार मार डाल

कुब्क-ए-दरी के लाख क़फ़स हों जहाँ धरे
दिखला के उन को शोख़ी-ए-रफ़्तार मार डाल

कुछ हम ने तेरे हाथ तो पकड़े नहीं मियाँ
गर जानता है हम को गुनहगार मार डाल

सय्याद तुझ को किस ने कहा था कि फ़स्ल-ए-गुल
मुझ को क़फ़स में कर के गिरफ़्तार मार डाल

जो जाँ-ब-लब हो हसरत-ए-दीदार में तिरी
दिखला के उस को जल्वा-ए-रुख़सार मार डाल

सौदाइयान-ए-इश्क़ का झगड़ा चुका कहीं
ले जा के उन को बरसर-ए-बाज़ार मार डाल

तेग़ ओ कमंद माँग कर अबरू ओ ज़ुल्फ़ से
आशिक़ बहुत हुए हैं जफ़ा-कार मार डाल

गर ये भी हो सके न तो कहता है 'मुसहफ़ी'
दो चार कर ले क़ैद में दो-चार मार डाल