तर्क-ए-तअल्लुक़ कर तो चुके हैं इक इम्कान अभी बाक़ी है
एक महाज़ से लौट आए हैं इक मैदान अभी बाक़ी है
शायद उस ने हँसी हँसी में तर्क-ए-वफ़ा का ज़िक्र किया हो
यूँही सी इक ख़ुश-फ़हमी है इत्मिनान अभी बाक़ी है
रातें उस के हिज्र में अब भी नज़अ के आलम में कटती हैं
दिल में वैसी ही वहशत है तन में जान अभी बाक़ी है
बचपन के इस घर के सारे कमरे मालिया-मेट हुए
जिस में हम खेला करते थे वो दालान अभी बाक़ी है
दिए मुंडेर प रख आते हैं हम हर शाम न जाने क्यूँ
शायद उस के लौट आने का कुछ इम्कान अभी बाक़ी है
एक अदालत और है जिस में हम तुम इक दिन हाज़िर होंगे
फ़ैसला सुन कर ख़ुश मत होना इक मीज़ान अभी बाक़ी है
ग़ज़ल
तर्क-ए-तअल्लुक़ कर तो चुके हैं इक इम्कान अभी बाक़ी है
ऐतबार साजिद