तर्क-ए-मोहब्बत अपनी ख़ता हो ऐसा भी हो सकता है
वो अब भी पाबंद-ए-वफ़ा हो ऐसा भी हो सकता है
दरवाज़े पर आहट सुन कर उस की तरफ़ क्यूँ ध्यान गया
आने वाली सिर्फ़ हवा हो ऐसा भी हो सकता है
हाल-ए-परेशाँ सुन कर मेरा आँख में उस की आँसू हैं
मैं ने उस से झूट कहा हो ऐसा भी हो सकता है
अर्ज़-ए-तलब पर उस की चुप से ज़ाहिर है इंकार मगर
शायद वो कुछ सोच रहा हो ऐसा भी हो सकता है
हद्द-ए-नज़र तक सिर्फ़ धुआँ था बर्क़ पे क्यूँ इल्ज़ाम रखें
आतिश-ए-गुल से बाग़ जला हो ऐसा भी हो सकता है
ख़ून बहाना उस का शेवा है तो सही 'मंज़ूर' मगर
हाथ पे उस के रंग-ए-हिना हो ऐसा भी हो सकता है
ग़ज़ल
तर्क-ए-मोहब्बत अपनी ख़ता हो ऐसा भी हो सकता है
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद