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तक़वे के लिए जन्नत-ओ-कौसर हुए मख़्सूस | शाही शायरी
taqwe ke liye jannat-o-kausar hue maKHsus

ग़ज़ल

तक़वे के लिए जन्नत-ओ-कौसर हुए मख़्सूस

साहिर देहल्वी

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तक़वे के लिए जन्नत-ओ-कौसर हुए मख़्सूस
रिंदी के लिए शीशा-ओ-साग़र हुए मख़्सूस

पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत है वहाँ फ़र्ज़
रिंदों को रुख़-ए-साक़ी-ओ-साग़र हुए मख़्सूस

क़ाएम है वहाँ दीन भी दुनिया भी ब-उम्मीद
हम को करम-ए-रहमत-ए-दावर हुए मख़्सूस

शेख़ी है वहाँ जुब्बा-ओ-दस्तार पे मौक़ूफ़
रिंदी को यहाँ तर्क-ए-तन-ओ-सर हुए मख़्सूस

है कश्फ़-ओ-करामात वहाँ माया-ए-पिंदार
सौदा और ज़ियाँ हम को बराबर हुए मख़्सूस

हैं ख़िरक़ा-ओ-अम्मामा वहाँ पीर-ए-तरीक़त
याँ कुफ्र-ओ-सनम हादी-ओ-रहबर हुए मख़्सूस

मौक़ूफ़ जो ईमाँ पे रहे मस्जिद-ओ-मिंबर
'साहिर' को सनम-ख़ाना-ओ-साग़र हुए मख़्सूस