तक़दीर के लिखे से सिवा बन गए हैं हम
बंदा न बन सके तो ख़ुदा बन गए हैं हम
मरना भी अब मुहाल है जीना भी अब मुहाल
अपने किए की आप सज़ा बन गए हैं हम
मजबूर-ए-जब्र-ए-इश्क़ हैं मुख़्तार-ए-ज़ब्त-ए-ग़म
तुम ही ज़रा बताओ कि क्या बन गए हैं हम
है अब भी इल्तिफ़ात का तालिब दिल-ए-हज़ीं
तस्लीम कि राज़ी-ब-रज़ा बन गए हैं हम
ग़म-गश्तगान-ए-दश्त-ए-मोहब्बत हूँ मुस्तफ़ीद
राह-ए-तलब में शम-ए-वफ़ा बन गए हैं हम
अब तो ख़ुशी है हाथ में ग़म है न मर्ग ओ ज़ीस्त
अल-मुख़्तसर कि तेरी रज़ा बन गए हैं हम
तर्क-ए-तलब के फ़ैज़ से दिल अब है मुतमइन
अपनी सज़ा की आप जज़ा बन गए हैं हम
ग़ज़ल
तक़दीर के लिखे से सिवा बन गए हैं हम
कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर

