तपती ज़मीं पे पाँव न धर अब भी लौट जा
क्यूँ हो रहा है ख़ाक-ब-सर अब भी लौट जा
अब तक खुले हुए हैं सदाक़त के रास्ते
बंद हो न जाएँ वक़्त के दर अब भी लौट जा
इतरा न तू नविश्ता-ए-दीवार पढ़ भी ले
दार-ओ-रसन की बात न कर अब भी लौट जा
आँखों के बादबान से वीरानियाँ भी देख
किस दर्जा लुट चुका है ये घर अब भी लौट जा
'राही' अभी तो शाम की सुर्ख़ी बुझी नहीं
ज़िद कर न लैत-ओ-ल'अल न कर अब भी लौट जा
ग़ज़ल
तपती ज़मीं पे पाँव न धर अब भी लौट जा
एजाज़ रही