तंदुरुस्ती दी ख़ुदा ने तो नक़ाहत न गई
या'नी तौबा से भी इस्याँ की नदामत न गई
शैख़-जी महफ़िल-ए-रिंदाँ से ये कहते निकले
शुक्र-सद-शुक्र कि बाज़ार में इज़्ज़त न गई
नाम बाक़ी है ज़माना में तो भर पाया
गए मर्दान-ए-ख़ुदा ख़ल्क़ से शोहरत न गई
किस का जल्वा नज़र आया था उसे रोज़-ए-अज़ल
आज तक नर्गिस-ए-बेदार की हैरत न गई
मर गया मर के भी ठंडी न हुई लाश मरी
सोज़-ए-फ़ुर्क़त की मगर दिल से हरारत न गई
ज़र्द नुक़रा नहीं इंसाँ की तरह मुर्दा-पसंद
जो गया क़ब्र में तन्हा गया दौलत न गई
हूर जो तुझ से मुशाबह थी उसी को देखा
मरने के बा'द भी ज़ालिम तिरी उल्फ़त न गई
नफ़स बहकाता है पीरी में तो कहता हूँ 'सख़ा'
क्यूँ ब-शैतान तिरी अब भी शरारत न गई
ग़ज़ल
तंदुरुस्ती दी ख़ुदा ने तो नक़ाहत न गई
सय्यद नज़ीर हसन सख़ा देहलवी