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तमाशा है कि सब आज़ाद क़ौमें | शाही शायरी
tamasha hai ki sab aazad qauMein

ग़ज़ल

तमाशा है कि सब आज़ाद क़ौमें

असद मुल्तानी

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तमाशा है कि सब आज़ाद क़ौमें
बही जाती हैं आज़ादी की रौ में

वो गर्द-ए-कारवाँ बन के चले हैं
सितारे थे रवाँ जिन के जिलौ में

सफ़र कैसा फ़क़त आवारगी है
नहीं मंज़िल निगाह-ए-राह-रौ में

है सोज़-ए-दिल ही राज़-ए-ज़िंदगानी
हयात-ए-शम्अ है सिर्फ़ उस की लौ में

बहुत थे हम-ज़बाँ लेकिन जो देखा
न निकला एक भी हमदर्द सौ मैं

'असद' साक़ी की है दोहरी इनायत
शराब-ए-कोहना डाली जाम-ए-नौ में