तमाशा है कि सब आज़ाद क़ौमें
बही जाती हैं आज़ादी की रौ में
वो गर्द-ए-कारवाँ बन के चले हैं
सितारे थे रवाँ जिन के जिलौ में
सफ़र कैसा फ़क़त आवारगी है
नहीं मंज़िल निगाह-ए-राह-रौ में
है सोज़-ए-दिल ही राज़-ए-ज़िंदगानी
हयात-ए-शम्अ है सिर्फ़ उस की लौ में
बहुत थे हम-ज़बाँ लेकिन जो देखा
न निकला एक भी हमदर्द सौ मैं
'असद' साक़ी की है दोहरी इनायत
शराब-ए-कोहना डाली जाम-ए-नौ में
ग़ज़ल
तमाशा है कि सब आज़ाद क़ौमें
असद मुल्तानी