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तमाशा-गाह है या आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू क्या है | शाही शायरी
tamasha-gah hai ya aalam-e-be-rang-o-bu kya hai

ग़ज़ल

तमाशा-गाह है या आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू क्या है

ज़िया फ़ारूक़ी

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तमाशा-गाह है या आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू क्या है
मैं किस से पूछने जाऊँ कि मेरे रू-ब-रू क्या है

बसारत कह रही है कुछ नहीं इस दश्त-ए-वहशत में
समाअ'त पूछती है फिर ये आख़िर हाव-हू क्या है

ये किस की आमद-ओ-शुद से हवाएँ रक़्स करती हैं
ये क्यूँ मौसम बदलते हैं मियान-ए-रंग-ओ-बू क्या है

दर-ओ-दीवार क्या कहते हैं घर किस को बुलाता है
गुज़रते मौसमों से बाम-ओ-दर की गुफ़्तुगू क्या है

दिखाई क्यूँ नहीं देता मुझे उस पार का मंज़र
ये इक दीवार जैसी चश्म-ए-तर के रू-ब-रू क्या है

मैं उस के सामने इक आईना ले जा के रख दूँगा
'ज़िया' अपनी ज़बाँ से क्यूँ कहूँ उस से कि तू क्या है