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तमाम जिस्म ही घायल था घाव ऐसा था | शाही शायरी
tamam jism hi ghayal tha ghaw aisa tha

ग़ज़ल

तमाम जिस्म ही घायल था घाव ऐसा था

कृष्ण बिहारी नूर

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तमाम जिस्म ही घायल था घाव ऐसा था
कोई न जान सका रख-रखाव कैसा था

बस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था
मिरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा था

वो हम को देखता रहता था हम तरसते थे
हमारी छत से वहाँ तक दिखाव ऐसा था

कुछ ऐसी साँसें भी लेना पड़ीं जो बोझल थीं
हवा का चारों तरफ़ से दबाव ऐसा था

ख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद भी बिक जाते
तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था

हैं दाएरे में क़दम ये न हो सका महसूस
रह-ए-हयात में यारो घुमाओ ऐसा था

कोई ठहर न सका मौत के समुंदर तक
हयात ऐसी नदी थी बहाव ऐसा था

बस उस की माँग में सिंदूर भर के लौट आए
हमारे अगले जनम का चुनाव ऐसा था

फिर इस के बअ'द झुके तो झुके ख़ुदा की तरफ़
तुम्हारी सम्त हमारा झुकाव ऐसा था

वो जिस का ख़ून था वो भी शनाख़्त कर न सका
हथेलियों पे लहू का रचाव ऐसा था

ज़बाँ से कुछ न कहूँगा ग़ज़ल ये हाज़िर है
दिमाग़ में कई दिन से तनाव ऐसा था

फ़रेब दे ही गया 'नूर' उस नज़र का ख़ुलूस
फ़रेब खा ही गया मैं सुभाव ऐसा था