तमाम अजनबी चेहरे सजे हैं चारों तरफ़
मिरी बहिश्त में काँटे उगे हैं चारों तरफ़
लहू में डूबे हुए दाएरे हैं चारों तरफ़
मैं कैसे जाऊँ कहीं हादसे हैं चारों तरफ़
किताब दर्द की पढ़ कर सुना रही है हयात
और आँसुओं के फ़रिश्ते खड़े हैं चारों तरफ़
चलो ये ख़ूब हुआ आइना जो टूट गया
अब अक्स मेरे ही बिखरे हुए हैं चारों तरफ़
तिरा ख़याल जब आया दुखों के सहरा में
मुझे कुछ ऐसा लगा गुल खिले हैं चारों तरफ़
कभी नदी के बदन पर कभी फ़ज़ाओं में
हवा ने मेरे क़सीदे लिखे हैं चारों तरफ़
न मेरी आँखों में नींदें न ख़्वाब की परियाँ
फ़िराक़ अज़ल से यहाँ रतजगे हैं चारों तरफ़
ग़ज़ल
तमाम अजनबी चेहरे सजे हैं चारों तरफ़
फ़िराक़ जलालपुरी