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तल्ख़ी-ए-ग़म मिरे एहसास का सरमाया है | शाही शायरी
talKHi-e-gham mere ehsas ka sarmaya hai

ग़ज़ल

तल्ख़ी-ए-ग़म मिरे एहसास का सरमाया है

उरूज ज़ैदी बदायूनी

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तल्ख़ी-ए-ग़म मिरे एहसास का सरमाया है
हुस्न से मैं ने ये इनआम-ए-वफ़ा पाया है

जब कभी इशरत-ए-रफ़्ता का ख़याल आया है
मैं नय पहरों दिल-ए-बे-ताब को समझाया है

हाए ये बे-ख़ुदी इश्क़ को मा'लूम नहीं
कौन आया है कब आया है कहाँ आया है

दिल को सीमाब सिफ़त कह के गुज़रने वाले
ख़ुद पे तड़पा है कि तू ने उसे तड़पाया है

काफ़िर-ए-इश्क़ न समझूँ तो उसे क्या समझूँ
मेरे इख़्लास को इक दोस्त ने ठुकराया है

अपनी इस हार को मैं जीत न क्यूँ कर समझूँ
ख़ुद को खोया है तो ऐ दोस्त तुझे पाया है

तुम मिरे हाल-ए-परेशाँ पे न तन्क़ीद करो
तुम ने दामन कभी काँटों में भी उलझाया है

मंज़िल-ए-दिल भी वही कू-ए-मलामत भी वही
इश्क़ का जज़्बा-ए-बे-ताब कहाँ लाया है

आँख झपकेगी तो शीराज़ा बिखर जाएगा
किस की आवाज़ थी जिस ने मुझे चौंकाया है

जिस को कहते हैं ग़ज़ल उस की बदौलत ही 'उरूज'
रुख़-ए-उर्दू पे ये रंग और निखार आया है