तकलीफ़-ए-इल्तिफ़ात-ए-गुरेज़ाँ कभी कभी
यूँ भी हुई है पुर्सिश-ए-पिन्हाँ कभी कभी
मेराज-ए-दीद जल्वा-ए-जानाँ कभी कभी
हम भी रहे हैं नाज़िश-ए-दौराँ कभी कभी
ये और बात रब्त-ए-मुसलसल न कह सकें
चूमा है हम ने दामन-ए-जानाँ कभी कभी
नक़्श-ए-ख़याल आप की तस्वीर बन गया
ये मो'जिज़ा हुआ है नुमायाँ कभी कभी
बंदा-नवाज़ी-ए-करम-ए-गाह गाह से
हम भी थे कायनात-ब-दामाँ कभी कभी
लग़्ज़िश की बात विरसा-ए-आदम की बात है
खाता है ठोकरें दिल-ए-इंसाँ कभी कभी
करवट बदल गई है तिरी वज़-ए-इल्तिफ़ात
देखा है ये भी ख़्वाब-ए-परेशाँ कभी कभी
ये सर-कशी के नाम से मंसूब ही सही
होता है दिल भी सर-ब-गरेबाँ कभी कभी
अक्सर नशात-ए-सैर-ए-गुलिस्तान-ए-बे-ख़िज़ाँ
अंदाज़ा-ए-फ़रेब-ए-बहाराँ कभी कभी
मेरे लबों पे मौज-ए-तबस्सुम के बावजूद
ग़म हो गया है रुख़ से नुमायाँ कभी कभी
कहना पड़ा है जल्वा-ए-सद-रंग रोकिए
नज़रें हुई हैं इतनी परेशाँ कभी कभी
ख़ुद अपने आस-पास अँधेरों को देख कर
घबरा उठी है सुब्ह-ए-बहाराँ कभी कभी
दामन बचा के हम तो गुज़र जाएँ ऐ 'उरूज'
ख़ुद छेड़ती है गर्दिश-ए-दौराँ कभी कभी

ग़ज़ल
तकलीफ़-ए-इल्तिफ़ात-ए-गुरेज़ाँ कभी कभी
उरूज ज़ैदी बदायूनी