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तकलीफ़-ए-इल्तिफ़ात-ए-गुरेज़ाँ कभी कभी | शाही शायरी
taklif-e-iltifat-e-gurezan kabhi kabhi

ग़ज़ल

तकलीफ़-ए-इल्तिफ़ात-ए-गुरेज़ाँ कभी कभी

उरूज ज़ैदी बदायूनी

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तकलीफ़-ए-इल्तिफ़ात-ए-गुरेज़ाँ कभी कभी
यूँ भी हुई है पुर्सिश-ए-पिन्हाँ कभी कभी

मेराज-ए-दीद जल्वा-ए-जानाँ कभी कभी
हम भी रहे हैं नाज़िश-ए-दौराँ कभी कभी

ये और बात रब्त-ए-मुसलसल न कह सकें
चूमा है हम ने दामन-ए-जानाँ कभी कभी

नक़्श-ए-ख़याल आप की तस्वीर बन गया
ये मो'जिज़ा हुआ है नुमायाँ कभी कभी

बंदा-नवाज़ी-ए-करम-ए-गाह गाह से
हम भी थे कायनात-ब-दामाँ कभी कभी

लग़्ज़िश की बात विरसा-ए-आदम की बात है
खाता है ठोकरें दिल-ए-इंसाँ कभी कभी

करवट बदल गई है तिरी वज़-ए-इल्तिफ़ात
देखा है ये भी ख़्वाब-ए-परेशाँ कभी कभी

ये सर-कशी के नाम से मंसूब ही सही
होता है दिल भी सर-ब-गरेबाँ कभी कभी

अक्सर नशात-ए-सैर-ए-गुलिस्तान-ए-बे-ख़िज़ाँ
अंदाज़ा-ए-फ़रेब-ए-बहाराँ कभी कभी

मेरे लबों पे मौज-ए-तबस्सुम के बावजूद
ग़म हो गया है रुख़ से नुमायाँ कभी कभी

कहना पड़ा है जल्वा-ए-सद-रंग रोकिए
नज़रें हुई हैं इतनी परेशाँ कभी कभी

ख़ुद अपने आस-पास अँधेरों को देख कर
घबरा उठी है सुब्ह-ए-बहाराँ कभी कभी

दामन बचा के हम तो गुज़र जाएँ ऐ 'उरूज'
ख़ुद छेड़ती है गर्दिश-ए-दौराँ कभी कभी