EN اردو
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट | शाही शायरी
taKHta-e-ab-e-chaman kyun na nazar aawe sapaT

ग़ज़ल

तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
याद आवे मुझे जिस दम वो निगम्मूद का घाट

ज़िंदगानी का मज़ा ज़ेर-ए-फ़लक अब न रहा
या-रब ऐसा हो कि मिल जाए कहीं पाट से पाट

फ़न्न-ए-कश्ती में क़यामत है वो बुत ग़ाज़िर का
धूम देता है मचा आवे है जब धोबी पाट

जाते ही वादी-ए-वहशत में क़दम मारा मैं
चमन-ए-दहर से दिल अपना हुआ जब कि उचाट

ख़ाक-ए-देहली में क्या जब से नसारा ने अमल
शोर-ए-गूजर ही रहा और न हंगामा-ए-जाट

तर्क ग़म्ज़े का मगर बर-सर-ए-सफ़्फ़ाकी है
उस के कूचे से चली आती है जब खाट पे खाट

क़त्ल-ए-आशिक़ का जो होता है इरादा उस को
पहले देखे है ख़र ओ गाव पे तलवार का काट

कोई सीखे भी क़नाअत को तो सग से सीखे
पड़ रहे है वो ब-यक गोशा दिया रात को चाट

रोज़ हंगामा है इस गुम्बद-ए-नीली के तईं
'मुसहफ़ी' शक नहीं बिगड़ा है मगर नील का माट