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तकल्लुफ़ है मुराद-ए-दिल का दिल पर बार हो जाना | शाही शायरी
takalluf hai murad-e-dil ka dil par bar ho jaana

ग़ज़ल

तकल्लुफ़ है मुराद-ए-दिल का दिल पर बार हो जाना

साक़िब लखनवी

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तकल्लुफ़ है मुराद-ए-दिल का दिल पर बार हो जाना
मोहब्बत क्या है मरने के लिए तय्यार हो जाना

न काम आया उन आहों का फ़लक के पार हो जाना
मिरे सोने से मुश्किल था तिरा बेदार हो जाना

नज़र मिलते ही उन से आ गया सारा असर दिल में
उसे आता न था पहले कभी बीमार हो जाना

वफ़ा का राहबर है तूदा-ए-ख़ाकी की जान उस को
कमाँ-कश दिल है आगे इक ज़रा हुशियार हो जाना

ये तूफ़ाँ अश्क का कम हो तो समझूँ डूब कर उभरा
इसी मतलब को सब कहते हैं बेड़ा पार हो जाना

तह-ए-शमशीर जा-ए-मर्दुम-ए-दीदा है देख ऐ दिल
यूँही तू भी उसी दिन के लिए तय्यार हो जाना

ज़रा सी इक निगाह-ए-इश्क़ में आँखों से गिरता है
बहुत आसान है इंसान का बे-कार हो जाना

दिल-ए-सय्याद से शिकवा करूँ क्या सहल है इस को
अदू फूलों का हो कर हम-ज़ियान-ए-ख़ार हो जाना

हुआ जो कुछ हुआ मम्नून हूँ सहबा-ए-ग़फ़लत का
क़फ़स में आ के अब बे-कार है हुशियार हो जाना

ये कैसी ना-तवानी है कि दिल महसूस करता है
मिरे काँधों पे ख़ुद मेरे ही सर का बार हो जाना

नज़र को एक जुम्बिश और दे ऐ देखने वाले
इशारे पर है इन ज़ख़्मों का दामन-दार हो जाना

बहम हैं बे-हिसी-ओ-हिस कि दिल को ख़्वाब आता है
कभी शक़ हो के दर होना कभी दीवार हो जाना

तुम्हारे ज़ो'म में रहरव का रस्ते से गुज़रना है
किसी छूटे हुए नावक का दिल के पार हो जाना

तिरा आवाज़ा-ए-हुस्न-ए-सुख़न अच्छा नहीं 'साक़िब'
नज़र पड़ती है तुझ पर इक ज़रा हुश्यार हो जाना