तड़प तो आज भी कुछ कम नहीं है
मगर ये चश्म अब पुर-नम नहीं है
हुए जब फ़र्त-ए-ग़म से ख़ुश्क आँसू
वो ये समझे कि मुझ को ग़म नहीं है
धुआँ सा इक उठा करता है दिल में
तिरी याद आह अब भी कम नहीं है
वो राहें भी कोई राहें हैं यारो
कि जिन में कोई पेच-ओ-ख़म नहीं है
रवाँ हूँ यूँ तो अब भी सू-ए-मंज़िल
क़दम उठते हैं लेकिन दम नहीं है
भला वो ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
ख़ुशी के साथ जिस में ग़म नहीं है
हुआ ख़ामोश ये 'मग़मूम' कैसे
है ना-मुम्किन कि उस को ग़म नहीं है
ग़ज़ल
तड़प तो आज भी कुछ कम नहीं है
गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम