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तबस्सुम लब पर आँखों में नमी है | शाही शायरी
tabassum lab par aankhon mein nami hai

ग़ज़ल

तबस्सुम लब पर आँखों में नमी है

शारिब लखनवी

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तबस्सुम लब पर आँखों में नमी है
ख़ुदा जाने ये ग़म है या ख़ुशी है

जो मंज़िल आज अहल-ए-होश की है
वो दीवानों की ठुकराई हुई है

कहाँ जाए थका-माँदा मुसाफ़िर
तू ही साया तू ही दीवार भी है

हज़ारों हैं सुकून-ए-दिल के सामाँ
ये दुनिया फिर भी घबराई हुई है

अँधेरे छू नहीं सकते हैं मुझ को
कि मेरे साथ तेरी रौशनी है

ज़बाँ कह दे तो इक हंगामा हो जाए
नज़र मा'लूम क्या क्या देखती है

न जाने कब तिरा दामन छुआ था
मगर हाथों में अब तक थरथरी है

वो बेगाना है उतना ज़िंदगी से
जैसे जितना शुऊ'र ज़िंदगी है

जफ़ाओं ने हज़ारों रंग बदले
वफ़ा अपनी जगह पर आज भी है

चलो ऐ ज़िम्मा-दारान-ए-मोहब्बत
फ़राज़-ए-दार पर फिर रौशनी है

मिरे सिमटे हुए दामन को 'शारिब'
बड़ी हैरत से दुनिया देखती है