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तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी | शाही शायरी
tasir-e-barq-e-husn jo un ke suKHan mein thi

ग़ज़ल

तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी

हसरत मोहानी

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तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी
इक लर्ज़िश-ए-ख़फ़ी मिरे सारे बदन में थी

वाँ से निकल के फिर न फ़राग़त हुई नसीब
आसूदगी की जान तिरी अंजुमन में थी

इक रंग-ए-इल्तिफ़ात भी उस बे-रुख़ी में था
इक सादगी भी उस निगह-ए-सहर फ़न में थी

मोहताज-ए-बू-ए-इत्र न था जिस्म-ए-ख़ूब-ए-यार
ख़ुशबू-ए-दिलबरी थी जो उस पैरहन में थी

कुछ दिल ही बुझ गया है मिरा वर्ना आज कल
कैफ़ियत-ए-बहार की शिद्दत चमन में थी

मालूम हो गई मिरे दिल को राह-ए-शौक़
वो बात प्यार की जो हुनूज़ उस दहन में थी

ग़ुर्बत की सुब्ह में भी नहीं है वो रौशनी
जो रौशनी कि शाम-ए-सवाद-ए-वतन में थी

ऐश गुदाज़-ए-दिल भी ग़म-ए-आशिक़ी में था
इक राहत-ए-लतीफ़ भी ज़िम्न-ए-महन में थी

अच्छा हुआ कि ख़ातिर-ए-'हसरत' से हट गई
हैबत सी इक जो ख़तरा-ए-दार-ओ-रसन में थी