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तारे खिले हुए हैं शब-ए-माहताब है | शाही शायरी
tare khile hue hain shab-e-mahtab hai

ग़ज़ल

तारे खिले हुए हैं शब-ए-माहताब है

मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़

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तारे खिले हुए हैं शब-ए-माहताब है
माशूक़ हम-पियाला है बज़्म-ए-शराब है

ये क्या सितम है वस्ल में मुँह पर नक़ाब है
क़ुर्बान इस हया के ये कैसा हिजाब है

बैठे हो मेरे सामने पहलू में ग़ैर के
फिर मुझ से पूछते हो तुम्हें क्यूँ इ'ताब है

ये फ़ैज़ है मिरे अरक़-ए-इंफ़िआ'ल का
नार-ए-जहीम मेरे लिए आब आब है

तस्वीर-ए-ग़ैर भेज के उस ने ब-लफ़्फ़-ए-ख़त
उनवाँ ये लिख दिया तिरे ख़त का जवाब है

क्यूँ छेड़ते हैं मुझ को नकीरैन क़ब्र में
जो सो रहा हो उस को जगाना अज़ाब है

इस के भी मुस्तहिक़ नहीं अग़्यार ना-बा-कार
गाली भी आप दें तो वो दुर्र-ए-ख़ुशाब है

मुझ को नहीं है शम्अ' की हाजत सर-ए-मज़ार
मेरा हर एक दाग़-ए-जिगर आफ़्ताब है

तुम तो फ़रोग़-ए-हुस्न में बर-ख़ुद ग़लत रहे
मैं ने न कह दिया था ये धोका है ख़्वाब है

का'बा जो इक बुतों का पुराना मक़ाम था
ज़ाहिद वहाँ के शौक़ में पादर-रिकाब है

भूले हुए हो अहद-ए-जवानी पे किस लिए
इस से तो पाएदार ज़ियादा हबाब है

रुस्वा मिरे किए से न होगा वो हश्र में
उस का शरीक ये दिल-ए-ख़ाना-ख़राब है

फंदे में फँस गया दिल-ए-नादाँ हज़ार हैफ़
किस को ख़बर थी ज़ुल्फ़ तुम्हारी तनाब है

क्यूँ तुम ने मेरे ख़त के परख़चे उड़ा दिए
नाराज़ हो तो मुझ से हो मुझ पर इ'ताब है

हम को नहीं है जिस लब-ए-नाज़ुक से फ़ैज़ कुछ
हो वो जो ख़ुश-नुमाई में बर्ग-ए-गुलाब है

मुतरिब ने राग छेड़ा है आ कर शब-ए-फ़िराक़
क्या दिल-ख़राश नग़्मा-ए-चंग-ओ-रबाब है

'रासिख़' मिला है अपनी रियाज़त का फल मुझे
नख़्ल-ए-सुख़न जो आज मिरा बारयाब है