तामीर-ए-ज़िंदगी को नुमायाँ किया गया
तख़रीब-ए-काएनात का सामाँ किया गया
गुलशन की शाख़ शाख़ को वीराँ किया गया
यूँ भी इलाज-ए-तंगी-ए-दामाँ किया गया
खोए होऊँ पे तेरी नज़र की नवाज़िशें
आईना दे के और भी हैराँ किया गया
आवारगी-ए-ज़ुल्फ़ से आसूदगी मिली
आसूदगी मिली कि परेशाँ किया गया
वो ख़ुश-नसीब हूँ कि ग़म-ए-इल्तिफ़ात से
मेरे ग़म-ए-हयात का दरमाँ किया गया
तन्हाइयाँ बिछा के जहान-ए-ख़राब में
मेरे लिए निगाह का सामाँ किया गया
फैला के बे-सबाती-ए-आलम की दास्ताँ
मुझ पर हराम कैफ़-ए-बहाराँ किया गया
भड़का के आतिश-ए-रुख़-ए-जानाँ की आरज़ू
मुझ को रहीन-ए-आतिश-ए-दौराँ किया गया
नौमीदी-ए-तलब पे चढ़ा के तलब का रंग
उम्मीद-ए-दीद-ए-दोस्त को अर्ज़ां किया गया
ये भी करम कि मुझ को शबान-ए-सियाह में
मामूर-ए-दिलनवाज़ी-ए-हिज्राँ किया गया
जमइय्यत-ए-जमाल का हुस्न-ए-कमाल देख
आख़िर यही हुआ कि परेशाँ किया गया
दे कर चमन को बहार-ओ-ख़िज़ाँ का रंग
मेरे ख़याल-ओ-ख़्वाब पे एहसाँ किया गया
आ और काएनात के फूलों की दाद दे
जिन से तिरा जमाल नुमायाँ किया गया
ग़ज़ल
तामीर-ए-ज़िंदगी को नुमायाँ किया गया
यूसुफ़ ज़फ़र