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तअ'ल्लुक़ात का इक ये भी शाख़साना हुआ | शाही शायरी
talluqat ka ek ye bhi shaKHsana hua

ग़ज़ल

तअ'ल्लुक़ात का इक ये भी शाख़साना हुआ

मोहसिन एहसान

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तअ'ल्लुक़ात का इक ये भी शाख़साना हुआ
हदफ़ में उस का बना जिस से दोस्ताना हुआ

कशीदगी-ए-मरासिम से मुतमइन हूँ बहुत
फ़सुर्दा-ख़ातिरी-ए-यार तो बहाना हुआ

अब उस से रस्म-ओ-रह-ए-दोस्ती नहीं मुमकिन
ये एक फ़ैसला होना था वालिहाना हुआ

मिरे ख़ुदा ने तलब से मुझे ज़ियादा दिया
मिरा नसीब न महरूम-ए-आब-ओ-दाना हुआ

दुआ-ए-ख़ैर कि अब बिजलियों की ज़द में है
मिरा क़फ़स हुआ या तेरा आशियाना हुआ

कुछ उस का हुस्न था कुछ ज़ेवरों की ज़ेबाइश
ये ख़्वाब था उसे देखे हुए ज़माना हुआ

ये दिल कि जिस में हैं मदफ़ून सैंकड़ों यादें
नवादिरात का 'मोहसिन' कोई ख़ज़ाना हुआ