तअल्लुक़ात चटख़्ते हैं टूट जाते हैं
जब हम ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत को आज़माते हैं
ख़ुशी का एक नया ज़ाविया उभरता है
हम अपने बच्चों से जिस वक़्त हार जाते हैं
शग़फ़ है ख़ूब रिवायात-ए-रफ़्तगाँ से मगर
हम अहद-ए-नौ के तराने भी गुनगुनाते हैं
उदास शब भी अमावस की मुस्कुराती है
जो क़ुमक़ुमे से निगाहों में जगमगाते हैं
हमारे बीच जो दीवार उठ रही है 'शिफ़ा'
चलो कि मिल के उसे आज हम गिराते हैं

ग़ज़ल
तअल्लुक़ात चटख़्ते हैं टूट जाते हैं
शिफ़ा कजगावन्वी