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ताइर के लिए दिन रात का डर | शाही शायरी
tair ke liye din raat ka Dar

ग़ज़ल

ताइर के लिए दिन रात का डर

महशर बदायुनी

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ताइर के लिए दिन रात का डर
दहलीज़ पे रिज़्क़ और ताक़ में घर

सब रौज़न-ए-ज़िंदाँ बंद हुए
या कुछ न रहा ज़िंदाँ से उधर

बाहर ये क़दम निकलें तो खुले
ज़ंजीर मदद करती है कि दर

मक़्तल की ज़मीं से फूल उगें
जाता है कहीं मिट्टी का असर

नींद आती है उस के साए में
गिर जाए ये दीवार अगर

हम सोग हैं जागे सपनों का
ऐ रात हमें महसूस न कर

जल्वों से बहुत नज़दीक हो तुम
ऐ बुल-हवसो दामन पे नज़र

है अपना क़याम इस आलम में
शबनम का बसेरा काँटे पर

या सिर्फ़ डगर थी वक़्त न था
अब सिर्फ़ है वक़्त का नाम डगर

कुछ अपनी प्यासें बुझ भी गईं
कुछ क़र्ज़ हैं दरिया-नोशों पर