ताबिश-ए-हुस्न हिजाब-ए-रुख़-ए-पुर-नूर नहीं
रख़्ना-गर हो निगह-ए-शौक़ तो कुछ दूर नहीं
शब-ए-फ़ुर्क़त नज़र आते नहीं आसार-ए-सहर
इतनी ज़ुल्मत है रुख़-ए-शम्अ पे भी नूर नहीं
राज़-ए-सर-बस्ता-ए-फ़ितरत न खुला है न खुले
मैं हूँ इस सई में मसरूफ़ जो मश्कूर नहीं
सर्फ़-ए-नैरंगी-ए-नज़्ज़ारा है ख़ुद अपना वजूद
ऐन वहदत है कोई नाज़िर-ओ-मंज़ूर नहीं
नज़र आता नहीं गो मंज़िल-ए-मक़्सद का निशाँ
ज़ौक़-ए-सादिक़ यही कहता है कि कुछ दूर नहीं

ग़ज़ल
ताबिश-ए-हुस्न हिजाब-ए-रुख़-ए-पुर-नूर नहीं
बर्क़ देहलवी