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ताबिश-ए-हुस्न हिजाब-ए-रुख़-ए-पुर-नूर नहीं | शाही शायरी
tabish-e-husn hijab-e-ruKH-e-pur-nur nahin

ग़ज़ल

ताबिश-ए-हुस्न हिजाब-ए-रुख़-ए-पुर-नूर नहीं

बर्क़ देहलवी

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ताबिश-ए-हुस्न हिजाब-ए-रुख़-ए-पुर-नूर नहीं
रख़्ना-गर हो निगह-ए-शौक़ तो कुछ दूर नहीं

शब-ए-फ़ुर्क़त नज़र आते नहीं आसार-ए-सहर
इतनी ज़ुल्मत है रुख़-ए-शम्अ पे भी नूर नहीं

राज़-ए-सर-बस्ता-ए-फ़ितरत न खुला है न खुले
मैं हूँ इस सई में मसरूफ़ जो मश्कूर नहीं

सर्फ़-ए-नैरंगी-ए-नज़्ज़ारा है ख़ुद अपना वजूद
ऐन वहदत है कोई नाज़िर-ओ-मंज़ूर नहीं

नज़र आता नहीं गो मंज़िल-ए-मक़्सद का निशाँ
ज़ौक़-ए-सादिक़ यही कहता है कि कुछ दूर नहीं