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सवाद-ए-ग़म में कहीं गोशा-ए-अमाँ न मिला | शाही शायरी
swad-e-gham mein kahin gosha-e-aman na mila

ग़ज़ल

सवाद-ए-ग़म में कहीं गोशा-ए-अमाँ न मिला

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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सवाद-ए-ग़म में कहीं गोशा-ए-अमाँ न मिला
हम ऐसे खोए कि फिर तेरा आस्ताँ न मिला

ग़मों की बज़्म कि तन्हाइयों की महफ़िल थी
हमें वो दुश्मन-ए-तमकीं कहाँ कहाँ न मिला

अजीब दौर-ए-सितम है कि दिल को मुद्दत से
नवेद-ए-ग़म न मिली मुज़्दा-ए-ज़ियाँ न मिला

किसे है याद कि सई-ओ-तलब की राहों में
कहाँ मिला हमें तेरा निशाँ कहाँ न मिला

उधर वफ़ा का गिला है कि दिल लहू न हुआ
उधर सितम को शिकायत कि क़द्र-दाँ न मिला

लबों को नुत्क़ का ए'जाज़ तो मिला 'ताबाँ'
मगर सुकूत का पैराया-ए-बयाँ न मिला