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सूरज ज़मीं की कोख से बाहर भी आएगा | शाही शायरी
suraj zamin ki kokh se bahar bhi aaega

ग़ज़ल

सूरज ज़मीं की कोख से बाहर भी आएगा

सलीम शाहिद

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सूरज ज़मीं की कोख से बाहर भी आएगा
हूँ मुंतज़िर कि सुब्ह का मंज़र भी आएगा

मिट्टी का जिस्म ले के चले हो तो सोच लो
इस रास्ते में एक समुंदर भी आएगा

हर लहज़ा उस के पाँव की आहट पे कान रख
दरवाज़े तक जो आया है अंदर भी आएगा

कब तक यूँही ज़मीन से लिपटे रहें क़दम
ये ज़ो'म है कि कोई पलट कर भी आएगा

देखा न था कभी मिरी आँखों ने आईना
एहसास भी न था कि मुझे डर भी आएगा

पत्थर के साथ बाँध के दरिया में डालिए
वर्ना ये जिस्म डूब के ऊपर भी आएगा

'शाहिद' बजा ये ज़ो'म कि गौहर-शनास हो
ये सोच लो कि हाथ में पत्थर भी आएगा