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सूरज उगा तो ज़िंदगी की शाम हो गई | शाही शायरी
suraj uga to zindagi ki sham ho gai

ग़ज़ल

सूरज उगा तो ज़िंदगी की शाम हो गई

अर्जुमंद बानो अफ़्शाँ

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सूरज उगा तो ज़िंदगी की शाम हो गई
अब सुब्ह-ए-नौ भी मौत का पैग़ाम हो गई

दिल में समा गईं वो ज़माने की नफ़रतें
मेहर-ओ-वफ़ा भी आख़िरश बदनाम हो गई

इंसान सारे मस्जिद-ओ-मंदिर में बट गए
इंसानियत इस दौर में नाकाम हो गई

ज़ैतून की जो शाख़ उठाए था हाथ में
गर्दन क़लम उसी की सर-ए-आम हो गई

'अफ़्शाँ' कहाँ से लाएँ वो अस्लाफ़ का ख़ुलूस
तारीख़ की किताब ही नीलाम हो गई