सूरज उगा तो ज़िंदगी की शाम हो गई
अब सुब्ह-ए-नौ भी मौत का पैग़ाम हो गई
दिल में समा गईं वो ज़माने की नफ़रतें
मेहर-ओ-वफ़ा भी आख़िरश बदनाम हो गई
इंसान सारे मस्जिद-ओ-मंदिर में बट गए
इंसानियत इस दौर में नाकाम हो गई
ज़ैतून की जो शाख़ उठाए था हाथ में
गर्दन क़लम उसी की सर-ए-आम हो गई
'अफ़्शाँ' कहाँ से लाएँ वो अस्लाफ़ का ख़ुलूस
तारीख़ की किताब ही नीलाम हो गई
ग़ज़ल
सूरज उगा तो ज़िंदगी की शाम हो गई
अर्जुमंद बानो अफ़्शाँ