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सूली चढ़े जो यार के क़द पर फ़िदा न हो | शाही शायरी
suli chaDhe jo yar ke qad par fida na ho

ग़ज़ल

सूली चढ़े जो यार के क़द पर फ़िदा न हो

इम्दाद इमाम असर

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सूली चढ़े जो यार के क़द पर फ़िदा न हो
फाँसी चढ़े जो क़ैदी-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा न हो

मज़मूँ वो क्या जो लज़्ज़त-ए-ग़म से भरा न हो
शाएर वो क्या कलाम में जिस के मज़ा न हो

बद-नाम मेरे वास्ते वो दिलरुबा न हो
या-रब अदू के हाथ से मेरी क़ज़ा न हो

जब अपनी कोई बात बग़ैर-अज़-दुआ न हो
दुश्मन के कहने सुनने से नादाँ ख़फ़ा न हो

हो वो अगर ख़िलाफ़-ए-मुआफ़िक़ हवा न हो
डूबे वो नाव जिस का ख़ुदा नाख़ुदा न हो

दिल-दादगी को हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद कम नहीं
नासेह अगर नहीं है बुतों में वफ़ा न हो

रोज़-ए-जज़ा वो शोख़ मिले हम को ऐ ख़ुदा
इस के सिवा कुछ और अदू की सज़ा न हो

मुश्किल का सामना हो तो हिम्मत न हारिए
हिम्मत है शर्त साहिब-ए-हिम्मत से क्या न हो

बुत आज़रान-ए-वक़्त बनाएँ अगर हज़ार
तेरा नज़ीर एक भी नाम ख़ुदा न हो

धोके में मेरे क़त्ल क्या उस ने ग़ैर को
क़ातिल का क्या क़ुसूर जो मेरी क़ज़ा न हो

सच है कि हर कमाल को दुनिया में है ज़वाल
ऐसा बड़ा है कौन जो आख़िर घटा न हो

रोज़-ए-जज़ा से वाइज़-ए-नादाँ उसे डरा
सदमा शब-ए-फ़िराक़ का जिस ने सहा न हो

मिलता नहीं पता तिरे छल्ले के चोर का
ऐ गुल-बदन ये शोख़ी-ए-दुज़्द-ए-हिना न हो

तेरा गिला न ग़ैर का शिकवा ज़बाँ पे है
करता हूँ अर्ज़ हाल-ए-सितमगर ख़फ़ा न हो

पाते हैं कज-सरिश्त जज़ा अपने फ़े'अल की
कहती है रास्ती कि बुरे का भला न हो

बुलबुल न फूल ख़ंदा-ए-सुब्ह-ए-बहार पर
नादाँ कहीं ये ख़ंदा-ए-दंदाँ-नुमा न हो

तेरी ज़बाँ पे आए अगर हर्फ़-ए-इल्तियाम
क्यूँ कर शिकस्त-ए-दिल के लिए मोमया न हो

ग़ाफ़िल मरीज़-ए-इश्क़ की तू ने ख़बर न ली
था ग़ैर उस का हाल वो अब तक हो या न हो

शर्मिंदा ऐ करीम न हों आशिक़ों में हम
पुर्सिश हमारे क़त्ल की रोज़-ए-जज़ा न हो

करता है ऐ 'असर' दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता का गिला
आशिक़ वो क्या कि ख़स्ता-ए-तेग़-ए-जफ़ा न हो