सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना
इस शहर-ए-दिल-नवाज़ के आदाब देखना
तुझ को कहाँ छुपाएँ कि दिल पर गिरफ़्त हो
आँखों को क्या करें कि वही ख़्वाब देखना
वो मौज-ए-ख़ूँ उठी है कि दीवार-ओ-दर कहाँ
अब के फ़सील-ए-शहर को ग़र्क़ाब देखना
इन सूरतों को तरसेगी चश्म-ए-जहाँ कि आज
कमयाब हैं तो कल हमें नायाब देखना
फिर ख़ून-ए-ख़ल्क़ ओ गर्दन-ए-मीना बचाइयो
पर चल पड़ा है ज़िक्र-ए-मय-ए-नाब देखना
आबाद कू-ए-चाक-ए-गरेबाँ जो फिर हुआ
दस्त-ए-रक़ीब ओ दामन-ए-अहबाब देखना
हम ले तो आए हैं तुझे इक बे-दिली के साथ
इस अंजुमन में ऐ दिल-ए-बेताब देखना
हद चाहिए 'फ़राज़' वफ़ा में भी और तुम्हें
ग़म देखना न दिल की तब-ओ-ताब देखना
ग़ज़ल
सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना
अहमद फ़राज़