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सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना | शाही शायरी
su-e-falak na jaanib-e-mahtab dekhna

ग़ज़ल

सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना

अहमद फ़राज़

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सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना
इस शहर-ए-दिल-नवाज़ के आदाब देखना

तुझ को कहाँ छुपाएँ कि दिल पर गिरफ़्त हो
आँखों को क्या करें कि वही ख़्वाब देखना

वो मौज-ए-ख़ूँ उठी है कि दीवार-ओ-दर कहाँ
अब के फ़सील-ए-शहर को ग़र्क़ाब देखना

इन सूरतों को तरसेगी चश्म-ए-जहाँ कि आज
कमयाब हैं तो कल हमें नायाब देखना

फिर ख़ून-ए-ख़ल्क़ ओ गर्दन-ए-मीना बचाइयो
पर चल पड़ा है ज़िक्र-ए-मय-ए-नाब देखना

आबाद कू-ए-चाक-ए-गरेबाँ जो फिर हुआ
दस्त-ए-रक़ीब ओ दामन-ए-अहबाब देखना

हम ले तो आए हैं तुझे इक बे-दिली के साथ
इस अंजुमन में ऐ दिल-ए-बेताब देखना

हद चाहिए 'फ़राज़' वफ़ा में भी और तुम्हें
ग़म देखना न दिल की तब-ओ-ताब देखना