EN اردو
सुना है उन के लब पर कल था ज़िक्र-ए-मुख़्तसर मेरा | शाही शायरी
suna hai un ke lab par kal tha zikr-e-muKHtasar mera

ग़ज़ल

सुना है उन के लब पर कल था ज़िक्र-ए-मुख़्तसर मेरा

परवेज़ शाहिदी

;

सुना है उन के लब पर कल था ज़िक्र-ए-मुख़्तसर मेरा
तसव्वुर दे रहा है तूल इसी को किस क़दर मेरा

ये दिल-सोज़ी-ए-दर्द-ए-आदमिय्यत क्या क़यामत है
किसी की आँख से आँसू बहें दामन हो तर मेरा

तसव्वुर मय-कदे का मुश्तरक हो किस तरह नासेह?
ख़िरद साग़र-शिकन तेरी जुनूँ पैमाना-गर मेरा

यही आलम रहा गर शौक़ की आईना-बंदी का!
तो गुम हो जाएगा जल्वों में शौक़-ए-ख़ुद-निगर मेरा

ख़ुदा-रा कुछ तो नाज़-ए-सर-बुलंदी रहम कर मुझ पर
तिरे बार-ए-गिराँ से अब झुका जाता है सर मेरा

उलझ कर रह गई थी अक़्ल तो पर्दे के तारों में
बड़ी मुश्किल से काम आया जुनून-ए-पर्दा-दर मेरा

नहीं 'परवेज़' कुछ अपने ही अश्कों की नमी इस में
बना है आस्तीन-ए-दोस्ताँ दामान-ए-तर मेरा