सुना है चुप की भी कोई पुकार होती है
ये बद-गुमानी मुझे बार बार होती है
ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया सराब की दुनिया
नज़र फ़क़ीर की पर्दे के पार होती है
अज़ाब-ए-दीदा कोई रंग सींचते कैसे
ख़िज़ाँ-गज़ीदगी आशुफ़्ता-बार होती है
मैं अपने हिस्से के मंज़र उजालने से रहा
ये आगही तो बहुत दिल-फ़िगार होती है
उमीद ही से ज़माने में शाद-कामी है
यही वो शाख़ है जो साया-दार होती है
ये रात मातमी मल्बूस ही में जचती थी
ये रात ही तो हमें पुर्सा-दार होती है
मैं जी रहा हूँ तो जीने का हौसला देखो
ये ज़ख़्म-कोशी तग़ाफ़ुल-शिआर होती है

ग़ज़ल
सुना है चुप की भी कोई पुकार होती है
राहिल बुख़ारी